रो-रो कर ज़माने से,
गुज़ारिश करते रहे हम,
एक दूज़े के बिना जी नहीं सकते,
इसलिये अपने प्यार की भीख़ मांगते रहे हम,
पर किसी ने भी हमारी एक न सुनी,
गैर तो गैर, अपनों का भी सहारा खोते रहे हम,
बेदखल करता गया समाज़ हमको,
और युहीं मरने के लिये मज़बूर होते रहे हम,
न जाने कब तक ये समाज़,
हमारी हत्यायें कर,
हमें समाज़ की गन्दगी बताता रहेगा,
सदियों से खुद इतनी घिनौनी हरक़त करता आ रहा,
ये समाज़,
न जाने और कब तक,
सभ्य कहलाता रहेगा…?