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Tuesday, June 5, 2012

सभ्य समाज़्…!!

रो-रो कर ज़माने से,
गुज़ारिश करते रहे हम,
एक दूज़े के बिना जी नहीं सकते,
इसलिये अपने प्यार की भीख़ मांगते रहे हम,

पर किसी ने भी हमारी एक न सुनी,
गैर तो गैर, अपनों का भी सहारा खोते रहे हम,
बेदखल करता गया समाज़ हमको,
और युहीं मरने के लिये मज़बूर होते रहे हम,

न जाने कब तक ये समाज़,
हमारी हत्यायें कर,
हमें समाज़ की गन्दगी बताता रहेगा,
सदियों से खुद इतनी घिनौनी हरक़त करता आ रहा,
ये समाज़,
न जाने और कब तक,
सभ्य कहलाता रहेगा…?

तलाश है एक मुकाम की…!!

मैंने ख़्वाबों से इतर ज़िन्दगी में और कुछ नहीं पाया,
न जानें कितने सवालों से रूबरू हुआ,
पर कभी सवालों के ज़वाबों को नहीं पाया।

चलती रही ज़िन्दगी हरदम,
अपनी ही रफ़्तार से,
सफ़र तो मै भी तय करता चला गया,
पर रास्ते में कभी किसी हमसफ़र को नहीं पाया।

मैं ख़ोज़ता रहा-
वक़्त के ज़िस्म पर पड़े,
अपनी यादों का एक निशां,
निशां तो मिले पर सभी दर्द के थे,
उसके ज़िस्म पर कभी खुशी का कोई निशां नहीं पाया।

सोचा था कभी सख़्त ज़मीं मिलेगी तो,
ज़मीं पर अपने निशां छोड़ जाउंगा,
पर हर कदम पर बज़री ही मुकम्मल हुई हमें,
निशां कैसे बनाते?
जब हमनें कभी ज़मीं को ही नहीं पाया।

उनकी कमी ख़लती है…!

न जाने किस मंज़िल की तलाश में
मैं यहां आया,
वक़्त गुज़रता गया
पर कभी मंज़िल का साया भी ना पाया।

हर सहर मेरे साथ,
हज़ारों ख्वाहिशें भी जगती थी,
पर हर शब के साथ,
हर इल्तज़ा का गला घुंटा पाया।

पर कुछ तो था यहां,
जो ज़ीने को मज़बूर करता था,
वो थे चंद मुस्कुराते चेहरे,
जिसने हमेंशा बेरुखी में भी,
हमें जीना सिखाया।

ज़हन में उनके जाने की खलिश हमेंशा रहेगी,
जिनके साये में,
हमने ख़ुद को,
हमेंशा महफ़ूज़ पाया॥