मैंने ख़्वाबों से इतर
ज़िन्दगी में और कुछ नहीं पाया,
न जानें कितने सवालों से
रूबरू हुआ,
पर कभी सवालों के ज़वाबों
को नहीं पाया।
चलती रही ज़िन्दगी हरदम,
अपनी ही रफ़्तार से,
सफ़र तो मै भी तय करता चला
गया,
पर रास्ते में कभी किसी
हमसफ़र को नहीं पाया।
मैं ख़ोज़ता रहा-
वक़्त के ज़िस्म पर पड़े,
अपनी यादों का एक निशां,
निशां तो मिले पर सभी
दर्द के थे,
उसके ज़िस्म पर कभी खुशी
का कोई निशां नहीं पाया।
सोचा था कभी सख़्त ज़मीं
मिलेगी तो,
ज़मीं पर अपने निशां छोड़
जाउंगा,
पर हर कदम पर बज़री ही
मुकम्मल हुई हमें,
निशां कैसे बनाते?
जब हमनें कभी ज़मीं को ही
नहीं पाया।
Very Nice lines..!!
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