Pages

Tuesday, June 5, 2012

उनकी कमी ख़लती है…!

न जाने किस मंज़िल की तलाश में
मैं यहां आया,
वक़्त गुज़रता गया
पर कभी मंज़िल का साया भी ना पाया।

हर सहर मेरे साथ,
हज़ारों ख्वाहिशें भी जगती थी,
पर हर शब के साथ,
हर इल्तज़ा का गला घुंटा पाया।

पर कुछ तो था यहां,
जो ज़ीने को मज़बूर करता था,
वो थे चंद मुस्कुराते चेहरे,
जिसने हमेंशा बेरुखी में भी,
हमें जीना सिखाया।

ज़हन में उनके जाने की खलिश हमेंशा रहेगी,
जिनके साये में,
हमने ख़ुद को,
हमेंशा महफ़ूज़ पाया॥

No comments:

Post a Comment